शहडोल।
पड़रिया और मंजीत सिंह ढाबा प्रकरण पर जैसे ही खबरें सामने आईं, विभागीय गलियारों में हड़कंप मच गया। सच्चाई सामने आने के बजाय अब लीगल खेल शुरू हो गया है।
पहले समाचारों में जेई का नाम “विकास सिंह” आया।
व्हाट्सऐप चैट में खुद संबंधित जेई ने खुशी-खुशी लिखा –
“आपने बिल्कुल सही तथ्य रखे हैं द्विवेदी जी… बिलकुल सही लिखा है, निष्पक्ष जांच कर दोषियों पर कार्रवाई होनी चाहिए।
”यानी खुद ही स्वीकार कर लिया कि तथ्य सही हैं।
लेकिन सच शायद ज़्यादा भारी पड़ गया। कुछ देर बाद वही जेई पलट गए और लिख डाला –
“विकास सिंह नाम का कोई जेई बुढ़ार में नहीं था।
”फिर तुरंत यह मैसेज डिलीट कर दिया और नई सलाह थमा दी –
“सही नाम पता कर न्यूज़ पब्लिश करिए श्रीमान।”
अब सूत्र बता रहे हैं कि बुढ़ार के वर्तमान जेई विकास गोंदुडे वकीलों से मुलाक़ात कर चुके हैं और मानहानि नोटिस की तैयारी कर रहे हैं।
सवालों की फेहरिस्त
अगर खबर “विकास सिंह” के नाम से प्रकाशित हुई थी, तो गोंदुडे साहब क्यों बेचैन हैं?
पहले चैट में तथ्य सही बताना और बाद में नाम पर बवाल मचाना – क्या यह “पहले हाँ, फिर ना” की कहानी नहीं है?
क्या यह सब पहले से तय था कि नाम सुधरवाकर बाद में मानहानि का हथियार चलाया जाए?
व्यंग का तड़का
जनता पूछ रही है –
“अगर खबर गलत थी तो पहले ताली क्यों बजाई? और अगर सही थी तो अब नाम का राग क्यों?”
सच यही है कि पड़रिया और मंजीत सिंह ढाबा प्रकरण की असलियत जब उजागर हुई, तो कुछ कुर्सियों की नींद उड़ गई। अब बचने का आसान रास्ता ढूंढा गया – नाम का विवाद।
लगता है तकलीफ़ नाम से नहीं, बल्कि उन दस्तावेज़ों और सबूतों से है जो खुलेआम गड़बड़ियों का हिसाब मांग रहे हैं। नाम बदलने से न तो पड़रिया की कहानी दबेगी, न ढाबे का सच मिटेगा।
जनता की नज़र
स्थानीय लोग कह रहे हैं –
“जिसे सच्चाई से डर नहीं है, उसे नाम से भी डर नहीं होना चाहिए।
”लेकिन यहाँ कहानी उलटी है – नाम पर तलवारें खिंच रही हैं और सच्चाई पर चुप्पी साधी जा रही है।
-“यह समाचार उपलब्ध दस्तावेज़ों, चैट और सूत्रों पर आधारित है। इसका उद्देश्य केवल तथ्य प्रस्तुत करना है, किसी व्यक्ति विशेष की मानहानि करना नहीं।”



