
संपादकीय
एसईसीएल सोहागपुर क्षेत्र से हाल ही में जो घटनाक्रम सामने आया है, उसने विभागीय अनुशासन और नियमावली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। अधिकारी अमित सिंह द्वारा बिना विभागीय अनुमति लिए मानहानि नोटिस भेजना सिर्फ एक व्यक्तिगत कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह उस मानसिकता का प्रतीक है जहाँ अहंकार नियमों से बड़ा और अनुमति कागज़ों से छोटी हो गई है।
अनुशासन का अर्थ क्या रह गया?
एक ओर साधारण कर्मचारी छुट्टी लेने के लिए भी विभागीय मंजूरियों की परतों से गुजरते हैं, तो दूसरी ओर अफसरों का यह रवैया सामने आता है जहाँ बिना अनुमति सीधे नोटिस थमा दिया जाता है। सवाल यह है कि क्या नियम केवल छोटे कर्मचारियों के लिए हैं और बड़े अफसर मनमर्जी करने के लिए स्वतंत्र हैं? अगर हाँ, तो फिर अनुशासन का मतलब केवल कमज़ोरों को बाँधने का औज़ार रह जाएगा।
प्रक्रिया बनाम मनमानी
किसी भी संस्थान की ताक़त उसके नियम और प्रक्रियाएँ होती हैं। लेकिन जब उन्हीं प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर व्यक्तिगत गुस्से और अहंकार के आधार पर फैसले लिए जाएँ, तो संस्थान का अनुशासन खोखला हो जाता है। “जब प्रक्रिया छुट्टी पर और मनमर्जी ड्यूटी पर” हो जाए, तब यह साफ हो जाता है कि संस्थान अब नियमों से नहीं, बल्कि व्यक्तियों की मनोदशा से चल रहा है।
चुप्पी क्यों?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसे मामलों पर विभागीय चुप्पी क्यों साधी जाती है? क्या अफसरों की मनमानी पर रोक लगाने का कोई तंत्र है या सब कुछ पद और शक्ति के हिसाब से चलता है? अगर इस तरह की कार्यवाही बिना रोकटोक होती रही, तो आने वाले समय में एसईसीएल जैसे संस्थान सिर्फ व्यक्तिगत राजनीति के मंच बनकर रह जाएंगे।
निचोड़
यह घटना किसी व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे विभागीय अनुशासन की परीक्षा है। नोटिस देने से पहले नियमों की नोटिस लेना ज़रूरी था। क्योंकि जब अफसर खुद नियमों की अनदेखी करने लगें, तो नियमावली की किताबें सिर्फ टेबल की शोभा और अनुशासन केवल कागज़ी शब्द बनकर रह जाते हैं।
“अनुमति छुट्टी पर, अहंकार ड्यूटी पर।”